डिजिटल भारत l सभी याचिकाओं को एक करके सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इस पर सुनवाई करते हुए फ़ैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार के नियंत्रण से बाहर होनी चाहिए. जस्टिस के.एम. जोसेफ़ की संवैधानिक पीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा एक समिति की सलाह पर की जाए, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता (या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता) और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे.
इस फ़ैसले के बाद मॉनसून सत्र में 10 अगस्त को मोदी सरकार ने राज्यसभा में एक बिल भी पेश कर दिया जिसका नाम था मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023. इस विधेयक पर राज्यसभा में जमकर हंगामा हुआ.
विशेष सत्र में 18 सितंबर को होगी चर्चा मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और टर्म ऑफ ऑफिस) विधेयक, 2023 को राज्यसभा में 10 अगस्त को मानसून सत्र के दौरान पेश किया गया था. संसद के विशेष सत्र में इस पर 18 सितंबर को चर्चा होने वाली है. इस विधेयक में मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा शर्तों को संशोधित करने का प्रस्ताव है. इसके ज़रिए उनका पद कैबिनेट सचिव के बराबर हो जाएगा. तत्कालीन समय में उनका पद सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर है. विधेयक पास होने पर चुनाव आयुक्तों के वेतन में कोई खास अंतर नहीं आएगा. सुप्रीम कोर्ट के जज और कैबिनेट सचिवों का मूल वेतन लगभग बराबर ही है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को रिटायरमेंट के बाद भी सरकारी लाभ मिलते हैं. इनमें ताउम्र ड्राइवर और घरेलू मदद के लिए कर्मचारी शामिल हैं. लेकिन बेचैनी इस बात की है कि चुनाव आयुक्तों को नौकरशाही में मिलाने से उनके अधिकार कम हो जाएंगे.
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