डिजिटल भारत I 1935 की बात है. सारा हॉल खचाखच भरा हुआ था. कहीं खड़े रखने की जगह नहीं थी. रसिकों की भारी भीड़. गुणों को हाथों-हाथ झेल लेने वालों की सभा थी वह. ऐसी स्थिति में उम्र से बारह किंतु दीखने में नौ वर्ष का बाल कुमार स्टेज पर आ बैठा और उसने सभा पर अपनी आवाज़ का सम्माेहन अस्त्र चला दिया. एक क्षण में वह सारी सभा जैसे उसकी पकड़ में आ गई. हर जगह प्रत्येक हरकत पर दाद दी जा रही थी. सभा का उत्साह जैसे उबला जा रहा था. गाना थोड़ी ही देर चला, लेकिन हर चेहरे पर विस्मय अंकित था. हर उपस्थित रसिक एवं कलाकार में इस लड़के की सराहना करने की लहरें उठ रही थीं. लिहाजा वहां पुरस्कारों की झड़ी लग गई. देने वालों में खां साहेबान थे, पंडित जी थे, गायिकाएं थीं. हर एक को यह फ़िक़्र भी थी कि इस लड़के के असामान्य गुणों की देखभाल और विकास कौन करेगा?” – वामनराव देशपांडे
कुमार गंधर्व की प्रतिभा कुछ ऐसी ही थी. जन्मजात थी. लेकिन कुमार के पहली बार गाने का किस्सा भी बड़ा रोचक है, जिसका जिक्र वामनराव देशपांडे उस किताब की भूमिका में करते हैं, “कुमार जी के घर में उनके जन्म से ही संगीत का वातावरण था और इसीलिए तभी से उन पर संगीत के संस्कार होने लगे. अनजाने ही सुनने की प्रक्रिया निरंतर जारी थी. लेकिन उन्होंने कभी मुंह नहीं खोला. घर भर में किसी को ज़रा भी संदेह तक नहीं था कि इस लड़के के मन में कुछ संस्कार हो रहे हैं या जम रहे हैं. और ऐसी में एक दिन उम्र के छठवें वर्ष में जैसे गीली जमीन को फाड़कर अंकुर बाहर आ जाए, कुमार जी एकदम गाने लगे. उस गायन से सबको इतना अचरज हुआ कि कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुमार जी वझेबुआ (उस जमाने के ख्यात शास्त्रीय गायक) का एक ग्रामोफोन रिकॉर्ड सुनकर उसकी हूबहू नक़ल उतार रहे थे…. इस तरह कुमार जी गाने लगे और धीरे-धीरे उनके पिता ने गाना छोड़ दिया.”
वह 11 बरस के थे, जब उनके पिता ने उन्हें संगीत सीखने बी.आर. देवधर के पास महाराष्ट्र भेज दिया. बी.आर. देवधर अपने जमाने के जाने- माने शास्त्रीय गायक और शिक्षक थे. उन्होंने संगीत घरानों की परंपरा को तोड़ते हुए मुंबई में देवधर स्कूल ऑफ म्यूजिक की स्थापना की. इसी स्कूल में 11 बरस का बालक शिवपुत्र 1934 में संगीत सीखने के लिए भेजा गया.
आठ अप्रैल, 2024 को उनकी जन्म शताब्दी मनाई जा रही है. इसको लेकर संगीत प्रेमियों में काफ़ी उत्साह दिख रहा है.
अपने माता-पिता के दांपत्य के बारे में उसी इंटरव्यू में कलापिनी कोमकली ने कहा था कि मेरे माता-पिता का संबंध पारंपरिक पति-पत्नी की तरह नहीं था, लेकिन वो दोनों एक-दूसरे में इस तरह एकाकार हो चुके थे कि दो लगते ही नहीं थे. उन्हें संवाद के लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी. वो बिना कहे ही एक-दूसरे की बात समझ जाते. उन दोनों को साथ गाते देखना ईश्वरीय साक्षात्कार की तरह था. वह संगत, वह संतुलन, वह शिखर, जहां दोनों साथ-साथ पहुंचते थे.
कुमार गंधर्व को गुज़रे तीन दशक से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन उनके गीतों का जादू कायम है.
कुमार गंधर्व के गाए कबीर और सूरदास के भजनों और सृजित नए रागों के बारे में आज भी बात होती है.
उनके गाए गीतों को सुनना हर बार नएपन का एहसास कराता है. कुमार गंधर्व का गाना सुनकर वे लोग भी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं, जिन्हें शास्त्रीय संगीत की समझ नहीं है.
पंडित कुमार गंधर्व का जन्म 8 अप्रैल 1924 को कर्नाटक के बेलगाम के पास सुलेभावी गांव में हुआ था. उनका मूल नाम शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली था. वे चार भाई-बहनों में तीसरे नंबर की संतान थे.
घर में थोड़ा बहुत संगीत का माहौल था क्योंकि पिता सिद्धारमैया की दिलचस्पी गाने में थी.
लेकिन एक दिन अचानक सात साल की उम्र में नन्हें शिवपुत्र ने गाना शुरू कर दिया और उन्होंने ऐसा गाना शुरू किया कि हर कोई हैरान रह गया.
बच्चे की प्रतिभा को भांपते हुए पिता उन्हें अपने गुरु के पास ले गए. उनके स्वामीजी ने कहा, ‘ओह, यह तो सचमुच गंधर्व है.’ तभी से उन्हें कुमार गंधर्व की उपाधि मिल गई और वे इसी नाम से जाने जाने लगे.
इसके बाद ही कुमार गंधर्व ने अपने पिता के साथ जलसों में गाना शुरू कर दिया. महज़ सात-आठ साल की उम्र से. उनके गाने के शो जल्दी ही लोकप्रिय होने लगे. हर किसी को अचरज होता था कि यह लड़का बिना कुछ सीखे इतना मधुर कैसे गा रहा है.
टीबी की बीमारी उस समय लाइलाज थी. इसके चलते डॉक्टरों ने कुमार गंधर्व को ऐसी जगह जाकर रहने की सलाह दी जहां वातावरण शुष्क हो. इसलिए उन्होंने देवास को चुना.
भानुमति की बहन त्रिवेणी कंस देवास में रहती थीं. कुमारजी को पुत्र के समान प्रेम करने वाला रामुभैया दाते का परिवार भी देवास में रहता था. इसलिए कुमार गंधर्व ने रहने के लिए देवास को चुना.
कुमार गंधर्व पर लिखी किताब ‘कालजयी’ की लेखिका और सह-संपादक रेखा इनामदार साने कहती हैं, ”कुमारजी की पहली पत्नी भानुमति भी एक गायिका थीं. लेकिन जब कुमारजी तपेदिक से पीड़ित हुए तो भानुमती ने कुमारजी की देखभाल की. कहा जा सकता है कि उनकी वजह से कुमार जी बच गए. इस दौरान भानुमती ने स्वयं काम करके परिवार को आर्थिक सहायता भी प्रदान की.”
”भानुमती से कुमारजी को दो पुत्र हुए, मुकुल शिवपुत्र और यशोवर्धन. यशोवर्धन के जन्म के बाद 1961 में भानुमति का निधन हो गया. फिर कुमारजी ने 1962 में वसुन्धरा ताई से शादी कर ली. वसुन्धरा से उनकी एक बेटी कलापिनि थी. 1962 से 1992 तक यानि कुमारजी के जाने तक उन्हें वसुन्धरा ताई का साथ मिला. वे कुमार जी के साथ स्टेज पर भी दिखाई देती थीं.”
कुमार गंधर्व के पोते और मुकुल शिवपुत्र के बेटे भुवनेश कोमकली कहते हैं, “वसुंधरा ताई ने न केवल कुमारजी के जीवन और परिवार की देखभाल की, बल्कि उनकी संगीत परंपरा को मुझे, कलापिनि ताई और अन्य छात्रों तक पहुंचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.”
जब कुमार गंधर्व देवास आए, तो उन्हें लगभग पांच साल तक बीमारी के चलते गाने की इजाज़त नहीं दी गई. वह समय कितना कठिन रहा होगा?
इसका वर्णन भुवनेश ने सटीक शब्दों में किया है. वह कहते हैं, ”हाल ही में हमें कोविड महामारी का सामना करना पड़ा. इस बीमारी के कारण कई लोगों की ज़िंदगी में 15-15 दिन का आइसोलेशन, कुछ महीनों का लॉकडाउन जैसी नौबत आई. यह कितना कठिन था?”
”फिर मेरे मन में सवाल आता है कि कुमार जी पांच साल तक एकांतवास में थे. उस दौरान उन्होंने वो पांच साल कैसे बिताए होंगे? तब संचार के माध्यम बहुत उन्नत नहीं थे. इस माहौल में भी, मुझे लगता है कि संगीत के बारे में, अपने जीवन के बारे में सकारात्मक सोचना बहुत महत्वपूर्ण है.”
उनका गाना बंद हो गया, लेकिन सुनना बंद नहीं हुआ था.