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डिजिटल भारत l देशभर में होली का त्यौहार हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है, सरहदी बाड़मेर में होली दहन से हजारों बरसों पुरानी एक रस्म को निभाया जाता है और इस रस्म में लोग गाजे बाजे के साथ शरीक होते हैं.

सीमांत बाड़मेर जिले में हजारों बरसों पुरानी परंपरा आज भी कायम है. होली के पर्व पर एक ऐसी परंपरा से रूबरू करवा रहे हैं, जोकि काफी रोचक है. दरअसल दूल्हा धूमधाम से अपनी दुल्हन को लेने बारात लेकर गया. मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था. बारात के चौखट पर पहुंचने से पहले ही दुल्हन की मौत हो गई. अपने प्यार को खोने का ऐसा सदमा लगा कि ताउम्र शादी ही नहीं की. यह कहानी है ईलोजी की. सरहदी बाड़मेर में आज भी होली के पर्व पर ईलोजी की पूजा की जाती है और बड़ी ही धूमधाम से ईलोजी की बारात निकाली जाती है.
पश्चिम राजस्थान के सीमांत बाड़मेर जिले में होलिका के मंगेतर ईलोजी को शादी के लिए तैयार किया जाता है. लोग मंगल गान के साथ ईलोजी की मूर्ति के रंग रोगन के साथ उसे तरह तरह के साधनों से सजाते हैं. लोग इस लोक देवता की मूर्ति को अगरबत्ती और दीपक भी करते हैं. दरअसल होली वाले दिन होलिका और ईलोजी की शादी होने वाली थी और होलिका के भाई हिरण्य कश्यप द्वारा भक्त प्रह्लाद को होलिका की गोदी में बैठाकर आग में बैठने के आदेश दिए और उसे आग से नहीं जलने के वरदान के बावजूद होलिका के आग में जल जाने से वह मर गई थी. जिससे ईलोजी की शादी का सपना पूरा नहीं हो पाया.

बेशक बरसाने की लठमार होली विश्वप्रसिद्ध (World Famous) हो, लेकिन राजस्थान (Rajasthan) में होली के विविध रंगों, परंपराओं (Tradition) और रीति-रिवाजों की धाक भी कम नहीं है. यहां ब्रज की प्रसिद्ध लठमार होली है तो आदिवासियों (Tribal) की पत्थरमार और कंकड़मार होली भी. रियासत काल (Princely Period) की शानदार विरासत भी है तो खुश्बू से सराबोर फूलों की होली भी है. मंदिरों (Temples) में दूध-दही के साथ ही, अंचलों में हंसी-ठिठोली वाली कोड़ामार होली भी मरुधरा में देखने को मिलती है.

होली के त्योहार के कई रूप देखने को मिलते हैं. रंगों के साथ फूलों की होली के लेकर खूनी होली खेलकर परंपरा का निर्वहन होता है. आइये जानते हैं कि राजस्थानी रंगों के साथ उमंग और उल्लास के रंगोत्सव को 16 तरीकों से कहां पर और कैसे-कैसे मनाते हैं…

  1. बारां में सहरिया का आठ दिन फूलडोल लोकोत्सव
    बारां जिले के किशनगंज, शाहाबाद, मांगरोल क्षेत्र में सहरिया जाति का आदिवासी नृत्य विदेशों तक में ख्याति प्राप्त कर चुका है. किशनगंज कस्बे में सवा सौ साल से ज्यादा समय से धुलंडी के दिन फूलडोल लोकोत्सव मनाया जाता है. इस लोकोत्सव में वैसे तो कई झांकियां सजाई जाती हैं, लेकिन उनमें सहरिया नृत्य की विशेष भूमिका होती है. सहरिया क्षेत्र के गांवों में आज भी होली के आठ दिन पहले से ही लोग रात-रात भर फाग गाते रहते हैं. चौपालों में ग्रामीण परंपरागत वाद्य यंत्रों के साथ फाग गाते रहते हैं.
  2. बूंदी के नैनवां में मनाया जाता है हडूडा त्योहार
    रंगों का त्योहार हाड़ौती में अलग-अलग तरीके से रियासतकाल से मनाया जाता है. चाहे हम बारां जिले के किशनगंज-शाहाबाद के सहरिया अंचल की लोक परंपरा की बात करें. या फिर बूंदी जिले के नैनवां क्षेत्र में मनाए जाने वाले हडूडा लोकोत्सव की. बूंदी जिले के नैनवां कस्बे में 150 साल से हर साल धुलंडी पर राजा मालदेव व रानी मालदेवकी का विवाह होता है. इस पुरुष प्रधान लोक पर्व में महिलाओं का प्रवेश तक नहीं होता. लोग दो समूहों में बंट जाते है. एक राजा मालदेव की बारात में शामिल होते हैं. वहीं दूसरे रानी मालदेवकी के ब्याह की तैयारियों में जुटते हैं.
  3. सांगोद में न्हाण लोकोत्सव का है विशेष महत्व
    हाड़ौती के ही सांगोद में पांच दिवसीय न्हाण का विशेष महत्व है. रियासत काल से आयोजित होने वाले इस लोकपर्व का आगाज सोरसन स्थित ब्रह्माणी माताजी की सवारी के साथ होता है. इसके बाद पांच दिन तक ज्वलंत मुद्दों, राजनीति पर व्यंग्यात्मक झांकियां सजाकर सवारी निकाली जाती है. इस दौरान कई हैरतअंगेज करतबों का अनूठा प्रदर्शन भी देखने को मिलता है.
  4. डूंगरपुर में अंगारों पर चलने की परंपरा
    वागड़ अंचल में आने वाले डूंगरपुर जिले में सबसे जुदा अंदाज में होली खेली जाती है. वागड़वासियों पर होली का खुमार एक महीने तक रहता है. होली के तहत जिले के कोकापुर गांव में लोग होलिका के दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलने की परंपरा निभाते हैं. मान्यता है कि अंगारों पर चलने से घर में विपदा नहीं आती.

5 .दो सदी पुरानी भीलूडा की खून भरी होली
डूंगरपुर के ही भीलूडा में खूनी होली खेली जाती है. पिछले 200 साल से धुलंडी पर लोग खतरनाक पत्थरमार होली खेलते आ रहे हैं। डूंगरपुरवासी रंगों के स्थान पर पत्थर बरसा कर खून बहाने को शगुन मानते हैं. भारी संख्या में लोग स्थानीय रघुनाथ मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं. फिर दो टोलियों में बंटकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते हैं. इसमें कुछ लोगों के पास ढ़ाले भी होती हैं लेकिन हर साल कई लोग इस खेल में गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाता है.

  1. पंजाब से सटे जिलों में कोड़ामार होली
    पंजाब से सटे श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में कोड़ामार होली की परंपरा है. होली मनाने के इस खास अंदाज में यहां देवर-भाभी के बीच कोड़े वाली होली काफी चर्चित है. होली पर देवर-भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोड़े मारती है. इस मौके पर देवर-भाभी से नेग भी मांगते हैं. इसके अलावा ढोल की थाप और डंके की चोट पर जहां महिलाओं की टोली रंग-गुलाल उड़ाती निकलती है. वहीं महिलाओं की मंडली किसी सूती वस्त्र को कोड़े की तरह लपेट कर रंग में भिगोकर इसे मारती हैं तो होली का समां बंध जाता है
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