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डिजिटल भारत I मध्यप्रदेश में बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद सरकार में नए नेतृत्व का उदय हुआ है. इसके बाद अनपेक्षित पॉलिटिकल मैसेजिंग का दौर चल पड़ा है. नए मुख्यमंत्री मोहन यादव की भाषण शैली, संवेदनशीलता, गवर्नेंस कैपेसिटी, लोकप्रियता और कार्यक्षमता का आकलन और विश्लेषण किया जा रहा है. यह सारा विश्लेषण 17 साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान के पैमाने पर किया जा रहा है. भले ही यह दोनों नेता तुलनात्मक आकलन के समर्थक और पक्षधर ना हों लेकिन प्रशंसक और अनुयायी तो इसी दिशा में जुटे हुए हैं.

सोशल मीडिया पर हर दिन नए-नए वीडियो और रील्स सामने आ रही हैं. इनमें निवर्तमान मुख्यमंत्री की संवेदनशीलता और लोकप्रियता को हिमालय की ऊंचाई देते हुए नए नेतृत्व को जमीन पर भी नहीं मानने की भूल की जा रही है. मध्यप्रदेश में 2005 की परिस्थितियां फिर से दोहराई गई हैं. जब शिवराज सिंह चौहान को वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर प्रदेश का मुख्यमंत्री चुना गया था, पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती बगावत के रास्ते पर आगे बढ़ गई थीं. उमा भारती को राज्य की राजनीति से बाहर जाना पड़ा था. समर्थक और प्रशंसक तो ऐसा ही माहौल बना रहे हैं कि मध्यप्रदेश में विजय के शिल्पकार को उसका हक नहीं दिया गया.

शिवराज सिंह चौहान लोकप्रियता के शिखर पर हैं. संगठन शक्ति के जीवंत स्वरूप शिवराज सिंह नई राजनीतिक परिस्थितियों में जिस राह पर आगे बढ़ रहे हैं, उसे कई लोग अस्वाभाविक मान रहे हैं. अगर 2005 में पहली बार सीएम बने शिवराज सिंह के शुरुआती कार्यकाल की तुलना नए मुख्यमंत्री मोहन यादव के शुरुआती कार्यकाल से की जाएगी, तब ही सही आकलन हो सकेगा.

मोहन यादव में मौलिकता दिखती है. भले ही वे बहुत लच्छेदार भाषण शैली के धनी ना हों लेकिन उनका ठेठ गंवईपन उनकी बड़ी ताकत दिखाई पड़ती है. मरीजों और रैनबसेरों में गरीबों से मिलने की उनकी शैली मौलिक और जीवन ऊर्जा से मेल खाती हुई देखी जा सकती है. जिस नेता ने मध्यप्रदेश की सत्ता की राजनीति में हिमालय की चोटी जैसा रिकॉर्ड स्थापित कर दिया है, उसकी तुलना नए नेतृत्व से करना उनके साथ नाइंसाफी होगी. हिमालय की चोटी पर चढ़ने के बाद सब को उतरना ही पड़ता है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि शिवराज सिंह की लोकप्रियता आज चरम पर है. सीएम पद पर उन्होंने अपनी कार्यशैली से जनता के बीच रिश्ते कायम किए हैं, जो भी रिश्ते हैं उनमें व्यक्तित्व के साथ ही पद का तेज भी शामिल रहा है. पद जाने के बाद पद की निस्तेज पीड़ा कई बार दिशाभ्रम पैदा कर देती है. एमपी की 16वीं विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण के कृतज्ञता प्रस्ताव पर चर्चा के समय शिवराज सिंह चौहान सदन से अनुपस्थित रहे. हाल ही में हुई भाजपा विधायक दल की बैठक में भी उनकी अनुपस्थिति चर्चा का विषय रही थी. अपनी शैली के मुताबिक, वे जनता के बीच लगातार जा रहे हैं. उनके बयान भी जिस तरह से सामने आ रहे हैं वे जाने अनजाने ऐसे संदेश दे रहे हैं जो पार्टी लाइन से थोड़े अलग दिखाई पड़ते हैं.

उनका पहला बयान ही कि ‘कुछ मांगने के लिए दिल्ली जाने से पहले मरना पसंद करेंगे’ सही परिक्षेप्य में नहीं लिया गया है. हो सकता है शिवराज सिंह चौहान जनप्रियता की अपनी लोकशैली के कारण स्वाभाविक रूप से यह सब कर रहे हों लेकिन विश्लेषण में तो इन्हें अस्वाभिक ही लिया जा रहा है. मध्यप्रदेश में इतने लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड अगर शिवराज चौहान ने बनाया है तो इसमें बीजेपी शीर्ष नेतृत्व खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह का योगदान निश्चित रूप से है.

2005 के बाद हुए चुनाव में जीत के कारण चौहान को नेतृत्व दिया जाना तो स्वाभाविक था लेकिन 2018 में चुनावी पराजय के बाद भी कांग्रेस में बगावत के कारण जब सरकार बनाने का बीजेपी को मौका मिला उस समय भी भाजपा नेतृत्व ने शिवराज सिंह चौहान को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था. इसलिए ऐसा विचार तो शायद सही नहीं होगा कि भाजपा नेतृत्व शिवराज को कमजोर करना चाहता है.

वक्त के साथ नेतृत्व में बदलाव और नयापन संगठन की ताकत होता है. जब शिवराज सिंह को मध्यप्रदेश का नेतृत्व दिया गया था तब तो परिस्थितियां और विकट थीं. उमा भारती की बगावत तक पार्टी को झेलनी पड़ी थी. फिर भी पार्टी चट्टान की तरह शिवराज सिंह चौहान के साथ खड़ी रही थी. ऐसे हालात में शिवराज के समर्थकों और प्रशंसकों को उनके भविष्य के प्रति चिंतित होकर जल्दबाजी में ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जिसका पॉलीटिकल मैसेज किसी भी तरह से पार्टी के खिलाफ जाता हो.

कार्यकर्ता आधारित राजनीतिक दल में कोई वरिष्ठता और कनिष्ठता का प्रश्न नहीं होता. जो भी नेता चुन लिया जाता है वही सबका नेता होता है. जब बीजेपी ने 2005 में पिछली पायदान पर खड़े शिवराज सिंह चौहान की क्षमता और योग्यता को पहचान लिया था तब आज उनकी लोकप्रियता के शिखर पर होने के बाद क्या पार्टी उनकी सेवाओं का समुचित महत्व और उपयोग नहीं करेगी? ऐसा संभव नहीं है लेकिन राजनीति धैर्य का नाम है. सोशल मीडिया के कारण आजकल सारी गतिविधियां मूलरूप में प्रमाणिकता के साथ सार्वजनिक हो जाती हैं. इसके कारण राजनेताओं को ज्यादा संयम रखने की जरूरत है.

मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री मोहन यादव ने अब तक कामकाज से जो प्रशासनिक मैसेज दिया है, वह आशाजनक है. उनकी शैली आक्रामक हिंदुत्व की दिखाई पड़ रही है. बीजेपी की राष्ट्रीय लाइन को मजबूती के साथ आगे बढाने का उनका संकल्प साफ नजर आ रहा है. लाउडस्पीकर और मांस विक्रय की दुकानों के संबंध में जिस तरह के आदेश निकले हैं उससे यही संदेश जा रहा है कि मध्यप्रदेश में मोहन स्टाइल योगी स्टाइल से ही प्रेरित रहेगी.

विधानसभा में कृतज्ञता ज्ञापन में अपने पहले भाषण में उन्होंने यह साफ संदेश दिया है कि हिंदुत्व उनका एजेंडा होगा. राम मंदिर और कृष्ण जन्मभूमि पर जितनी स्पष्टता के साथ मोहन यादव ने अपना पक्ष रखा है, इस तरह पहले मध्यप्रदेश में किसी नेता ने अपनी बात नहीं कही. उनका व्यक्तित्व और छवि हिंदुत्व की लाइन से मेल खा रहा है.

सरकार में ब्यूरोक्रेट्स के फेरबदल से भी जो संकेत मिल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मोहन यादव ताकत के साथ सरकार चलाएंगे. पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विश्वसनीय अफसरों को जिस तरह से पदों से हटाया गया है उससे भी यही पॉलिटिकल मैसेज जा रहा है कि सरकार पर मोहन यादव का ही नियंत्रण होगा. जो ब्यूरोक्रेट पॉलिटिकल रिलेशनशिप का उपयोग करना चाहेंगे उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी.

नए मुख्यमंत्री शिवराज मंत्रिमंडल में उच्च शिक्षामंत्री रहे हैं. मंत्री के रूप में उनकी खींची गई कोई भी लकीर राजनीतिक हलकों में स्थापित नहीं रही है. यह भी हो सकता है कि मंत्री के रूप में विश्लेषकों की नजर उनके कामकाज पर नहीं रही हो लेकिन अब तो सारी नजरें मोहन यादव की तरफ ही देख रही हैं. इसमें समर्थकों की भी नजरें हैं और विरोधियों की टेढ़ी नज़रें भी हैं. उनके सामने शिवराज की लोकप्रियता और छवि की चुनौती तो हमेशा बनी रहेगी. उन्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना होगा.

वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय ने विधानसभा में नए मुख्यमंत्री की शैक्षणिक योग्यता, संगठन क्षमता और कर्मठता को लेकर बेहतर ढंग से विचार व्यक्त किए हैं. नए मुख्यमंत्री को वक्त के साथ अपने को साबित करना होगा. देश और राज्य के राजनीतिक हालातों में ओबीसी पॉलिटिक्स मोहन यादव के पक्ष में है. उत्तर भारत में यादव समुदाय खासकर उत्तरप्रदेश और बिहार में बीजेपी का समर्थक नहीं माना जाता है. बीजेपी को एक बड़े रीजनल यादव नेता की जरूरत थी. मोहन यादव के रूप में पार्टी ने वह तलाश पूरी कर ली है.

नए मुख्यमंत्री पर न सिर्फ मध्य प्रदेश में लोकसभा की सभी सीट जिताने का बड़ा दायित्व है. बल्कि उत्तर भारत के दोनों बड़े राज्यों में यादव मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में लाने की बड़ी भूमिका भी निभानी होगी. मोहन यादव को भाजपा शीर्ष नेतृत्व, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संगठन का संपूर्ण समर्थन प्राप्त दिखाई पड़ रहा है.

हालात मोहन यादव के उज्जवल भविष्य का इशारा कर रहे हैं. देश की धार्मिक नगरी उज्जैन की तासीर भी मोहन यादव के व्यक्तित्व में दिखाई पड़ रही है. उन्होंने मध्यप्रदेश में भगवान कृष्ण से जुड़े स्थानों को तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने का ऐलान करके अयोध्या काशी मथुरा के एजेंडे को ही आगे बढ़ाने का काम किया है. वक्त के पहले मोहन यादव का बेमेल आकलन करने वाले निराश होंगे. वक्त के साथ मोहन का सम्मोहन मध्यप्रदेश की राजनीति को भगवामय बनाने में बड़ी भूमिका निभा सकता है.

संपादक – नलिन कांत बाजपेयी

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